Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः गबन



32

रतन की भी आंखें भर आई। बोली, 'मुझसे भी वहां न रहा जायगा, सच कहती हूं। मैं तो कह दूंगी, मुझे नहीं जाना है।' जालपा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गई और उसके गले में हाथ डालकर बोली, 'कसम खाओ कि मुझे छोड़कर न जाओगी।'
रतन ने उसे अंकवार में लेकर कहा, 'लो, कसम खाती हूं, न जाऊंगी। चाहे इधर की दुनिया उधार हो जाय। मेरे लिए वहां क्या रक्खा है। बंगला भी क्यों बेचूं, दो-ढाई सौ मकानों का किराया है। हम दोनों के गुज़र के लिए काफी है। मैं आज ही मन्नी से कह दूंगी,मैं न जाऊंगी।'
सहसा फर्श पर शतरंज के मुहरे और नक्शे देखकर उसने पूछा,यह शतरंज किसके साथ खेल रही थीं?
जालपा ने शतरंज के नक्शे पर अपने भाग्य का पांसा फेंकने की जो बात सोची थी, वह सब उससे कह सुनाई,मन में डर रही थी कि यह कहीं इस प्रस्ताव को व्यर्थ न समझे, पागलपन न ख़याल करे, लेकिन रतन सुनते ही बाग़-बाग़ हो गई। बोली,दस रूपये तो बहुत कम पुरस्कार है। पचास रूपये कर दो। रूपये मैं देती हूं।
जालपा ने शंका की, 'लेकिन इतने पुरस्कार के लोभ से कहीं अच्छे शतरंजबाज़ों ने मैदान में कदम रक्खा तो?'
रतन ने दृढ़ता से कहा,कोई हरज नहीं। बाबूजी की निगाह पड़ गई, तो वह इसे जरूर हल कर लेंगे और मुझे आशा है कि सबसे पहले उन्हीं का नाम आवेगा। कुछ न होगा, तो पता तो लग ही जायगा। अख़बार के दफ्तर में तो उनका पता आ ही जायगा। तुमने बहुत अच्छा उपाय सोच निकाला है। मेरा मन कहता है, इसका अच्छा फल होगा, मैं अब मन की प्रेरणा की कायल हो गई हूं। जब मैं इन्हें लेकर कलकत्ता चली थी, उस वक्त मेरा मन कह रहा था, यहां
जाना अच्छा न होगा।'
जालपा-'तो तुम्हें आशा है?'
'पूरी! मैं कल सबेरे रूपये लेकर आऊंगी।'
'तो मैं आज ख़त लिख रक्खूंगी। किसके पास भेजूं? वहां का कोई प्रसिद्ध पत्र होना चाहिए।'
'वहां तो 'प्रजा-मित्र' की बडी चर्चा थी। पुस्तकालयों में अक्सर लोग उसी को पढ़ते नज़र आते थे। '
'तो 'प्रजा-मित्र' ही को लिखूंगी, लेकिन रूपये हड़प कर जाय और नक्शा न छापे तो क्या हो?'
'होगा क्या, पचास रूपये ही तो ले जाएगा। दमड़ी की हंडिया खोकर कुत्तों की जात तो पहचान ली जायगी, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता जो लोग देशहित के लिए जेल जाते हैं, तरह-तरह की धौंस सहते हैं, वे इतने नीच नहीं हो सकते। मेरे साथ आधा घंटे के लिए चलो तो तुम्हें इसी वक्त रूपये दे दूं।'
जालपा ने नीमराजी होकर कहा, 'इस वक्त क़हां चलूं। कल ही आऊंगी।'
उसी वक्त मुंशीजी पुकार उठे, 'बहू! बहू!'
जालपा तो लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतन बाहर जा रही थी कि जागेश्वरी पंखा लिये अपने को झलती हुई दिखाई पड़ गई। रतन ने पूछा, 'तुम्हें गर्मी लग रही है अम्मांजी? मैं तो ठंड के मारे कांप रही हूं। अरे! तुम्हारे पांवों में यह क्या उजला-उजला लगा हुआ है? क्या आटा पीस रही थीं?'
जागेश्वरी ने लज्जित होकर कहा, 'हां, वैद्य जी ने इन्हें हाथ के आटे की रोटी खाने को कहा है। बाज़ार में हाथ का आटा कहां मयस्सर- मुहल्ले में कोई पिसनहारी नहीं मिलती। मजूरिनें तक चक्की से आटा पिसवा लेती हैं। मैं तो एक आना सेर देने को राज़ी हूं, पर कोई मिलती ही नहीं।'
रतन ने अचंभे से कहा, 'तुमसे चक्की चल जाती है?'
जागेश्वरी ने झेंप से मुस्कराकर कहा,'कौन बहुत था। पाव-भर तो दो दिन के लिए हो जाता है। खाते नहीं एक कौर भी, बहू पीसने जा रही थी, लेकिन फिर मुझे उनके पास बैठना पड़ता। मुझे रात-भर चक्की पीसना गौं है, उनके पास घड़ी-भर बैठना गौं नहीं।
रतन जाकर जांत के पास एक मिनट खड़ी रही, फिर मुस्कराकर माची पर बैठ गई और बोली, 'तुमसे तो अब जांत न चलता होगा, मांजी! लाओ थोडासा गेहूं मुझे दो, देखूं तो।'
जागेश्वरी ने कानों पर हाथ रखकर कहा, 'अरे नहीं बहू, तुम क्या पीसोगी!चलो यहां से।'
रतन ने प्रमाण दिया, 'मैंने बहुत दिनों तक पीसा है, मांजीब जब मैं अपने घर थी, तो रोज़ पीसती थी। मेरी अम्मां, लाओ थोडा-सा गेहूं।'
'हाथ दुखने लगेगा। छाले पड़ जाएंगे।'
'कुछ नहीं होगा मांजी, आप गेहूं तो लाइए।'
जागेश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश करके कहा, 'गेहूं घर में नहीं हैं। अब इस वक्त बाज़ार से कौन लावे।'
'अच्छा चलिए, मैं भंडारे में देखूं। गेहूं होगा कैसे नहीं।'
रसोई की बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतन अंदर चली गई और हांडियों में टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हांडी में गेहूं निकल आए। बडी खुश हुई। बोली,देखो मांजी, निकले कि नहीं, तुम मुझसे बहाना कर रही थीं। उसने एक टोकरी में थोडा-सा गेहूं निकाल लिया और ख़ुश-ख़ुश चक्की पर जाकर पीसने लगी। जागेश्वरी ने जाकर जालपा से कहा, 'बहू, वह जांत पर बैठी गेहूं पीस रही हैं। उठाती हूं, उठतीं ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे।
जालपा ने मुंशीजी के कमरे से निकलकर सास की घबराहट का आनंद उठाने के लिए कहा, 'यह तुमने क्या ग़ज़ब किया, अम्मांजी! सचमुच, कोई देख ले तो नाक ही कट जाय! चलिए, ज़रा देखूं।'
जागेश्वरी ने विवशता से कहा, 'क्या करूं, मैं तो समझा के हार गई, मानतीं ही नहीं।'
जालपा ने जाकर देखा, तो रतन गेहूं पीसने में मग्न थी। विनोद के स्वाभाविक आनंद से उसका चेहरा खिला हुआ था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूंदें आ गई थीं। उसके बलिष्ठ हाथों में जांत लट्टू के समान नाच रहा था।
जालपा ने हंसकर कहा, 'ओ री, आटा महीन हो, नहीं पैसे न मिलेंगे।'
रतन को सुनाई न दिया। बहरों की भांति अनिश्चित भाव से मुस्कराई।
जालपा ने और ज़ोर से कहा, 'आटा खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पाएगी।' रतन ने भी हंसकर कहा, जितना महीन कहिए उतना महीन पीस दूं,बहूजी। पिसाई अच्छी मिलनी चाहिए।
जालपा-'मोले सेर।'
रतन-'मोले सेर सही।'
जालपा-'मुंह धो आओ। धोले सेर मिलेंगे।'
रतन-'मैं यह सब पीसकर उठूंगी। तुम यहां क्यों खड़ी हो?'
जालपा-'आ जाऊं, मैं भी खिंचा दूं।'
रतन-'जी चाहता है, कोई जांत का गीत गाऊं!'
जालपा-'अकेले कैसे गाओगी! (जागेश्वरी से) अम्मां आप ज़रा दादाजी के पास बैठ जायं, मैं अभी आती हूं।'
जालपा भी जांत पर जा बैठी और दोनों जांत का यह गीत गाने लगीं।
'मोहि जोगिन बनाके कहां गए रे जोगिया।'
दोनों के स्वर मधुर थे। जांत की घुमुर-घुमुर उनके स्वर के साथ साज़ का काम कर रही थी। जब दोनों एक कड़ी गाकर चुप हो जातीं, तो जांत का स्वर माना कंठ-ध्वनि से रंजित होकर और भी मनोहर हो जाता था। दोनों के ह्रदय इस समय जीवन के स्वाभाविक आनंद से पूर्ण थे? न शोक का भार था, न वियोग का दुःख। जैसे दो चिडियां प्रभात की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों।

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